अखिलेश यादव के मन में क्या? इतिहास न बदल पाई सपा तो किसके सिर फूटेगा हार का ठीकरा

उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में समाजवादी पार्टी का ट्रैक रिकॉर्ड हमेशा से खराब रहा है. इसलिए इस बार अखिलेश यादव ने निकाय चुनाव की रणनीति में बदलाव करते हुए ज्यादा तरजीह अपने चाचा शिवपाल यादव को दी है. सपा यादवों के गढ़ में ही नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के गढ़ में भी बेहतर प्रदर्शन करने की उम्मीद में कई नए प्रयोग कर रही है. जाहिर है बार-बार नए प्रयोग में फिसड्डी साबित होने वाले अखिलेश यादव शिवपाल को आगे कर नगर निकाय चुनाव में जनाधार परखने की तैयारी में जुटे हैं.

नगर निकाय चुनाव में चाचा शिवपाल यादव ही अहम हैं, ये सबको मालूम पड़ गया है. इन दिनों शिवपाल यादव के घर के बाहर की भीड़ इसका पुख्ता प्रमाण है. मैनपुरी चुनाव में सपा की प्रचंड जीत के बाद शिवपाल यादव पर भतीजे अखिलेश यादव का भरोसा भी बढ़ा है. इसी वजह से चाचा शिवपाल को आगे कर समाजवादी पार्टी निकाय चुनाव में बाजी पलटने का दावा जोर-जोर से कर रही है. दरअसल शिवपाल यादव की कार्यकर्ताओं के बीच अच्छी पकड़ और मुलायम सिंह के साथ राजनीति का जमीनी अनुभव पार्टी में उन्हें विशेष जगह दिलाता है. इसलिए यादवों के गढ़ में ही नहीं बल्कि बीजेपी के गढ़ में भी सेंधमारी की पूरी प्लानिंग को अमली जामा पहनाने का जिम्मा शिवपाल यादव के कंधे पर है.

ऐसे में महापौर और अध्यक्ष के कुल 652 पदों पर समाजवादी पार्टी का बेहतर प्रदर्शन शिवपाल यादव के लिए बड़ी चुनौती बन गया है. दरअसल समाजवादी पार्टी की पिछले चुनाव में 52 फीसदी सीटों पर जमानत नहीं बच पाई थी, लेकिन खतौली विधानसभा और मैनपुरी लोकसभा के उपचुनाव में बड़ी जीत मिलने के बाद समाजवादी पार्टी के भीतर नए जोश का संचार हुआ है. लेकिन ताकतवार बीजेपी का सामना शिवपाल यादव किस तरह करेंगे इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं.

बीजेपी ने दंगा मुक्त राज्य और अपराधियों पर कड़े प्रहार को मुद्दा बनाकर प्रचार का जिम्मा सीधा योगी आदित्यनाथ, उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक के हाथों सौंपा है. ये नेता समाजवादी पार्टी पर डॉन और गुंडों की मददगार पार्टी की तोहमत लगाकर घेरने की तैयारी में हैं. वहीं शिवपाल यादव के लिए बीजेपी के नेताओं की लंबी पौध का सामना करना और भी बड़ी चुनौती है. दरअसल जनता के बीच अखिलेश यादव पहुंचकर डंटकर मुकाबला किस हद तक करेंगे इस पर हमेशा संदेह रहा है.

वहीं बीजेपी में योगी के अलावा तमाम बड़े नेता जमीन पर उतरकर जनता के बीच संवाद कायम करने के प्रयास में जुटे हैं, लेकिन अखिलेश यादव जनता से सीधे संवाद में पिछड़ते हुए दिख रहे हैं. जाहिर है बीजेपी जहां घर-घर पहुंचकर वोटों को साधने में जुटी है, वहीं सपा शिवपाल यादव के सहारे मैनपुरी और खतौली जैसे चुनावी परिणाम की उम्मीदें पाले बैठी है. जाहिर है नगर निकाय चुनाव में शिवपाल यादव की असली कठिन परीक्षा है, जिसमें फेल होने पर सारा ठीकरा उनके सर फोड़ा जाएगा ये तय है.

लगातार हार की वजह से अखिलेश की सियासी साख दांव पर
अखिलेश यादव की साख को बचाए रखने के लिए शिवपाल यादव को आगे कर नगर निकाय चुनाव लड़ना पार्टी की मजबूरी है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. अखिलेश साल 2014 से लगातार चुनाव हार रहे हैं, इसलिए अखिलेश यादव के लिए साख बचाए रखना प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है. वैसे भी पिछले रिकॉर्ड को देखें तो निकाय चुनाव में बीजेपी सत्ता से बाहर रहने के बावजूद बेहतर प्रदर्शन करती रही है. इसलिए कई असफल प्रयोग के बाद अब समाजवादी पार्टी ओबीसी वोट बैंक को साधने में जुट गई है. सपा अपने कोर वोट बैंक यादव और मुस्लिम पर ज्यादा फोकस कर रही है . वहीं दलितों और अन्य पिछड़ों को जोड़ना सपा की रणनीति का अहम हिस्सा है.

जाहिर है पार्टी का लक्ष्य साल 2024 का लोकसभा चुनाव है. लेकिन अखिलेश यादव नगर निकाय चुनाव के जरिए पार्टी के जनाधार को परखने का प्रयास चाचा शिवपाल को चुनाव में आगे करते हुए कर रहे हैं. इस कवायद में आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद को साथ लाकर दलितों को जोड़ने की है. जाहिर है मुलायम सिंह के निधन के बाद मैनपूरी में डिंपल यादव को मिली भारी जीत इस प्रयोग का आधार है, जिसमें शिवपाल यादव के साथ आने के बाद अखिलेश यादव पार्टी और परिवार की साख बचाने में कामयाब रहे थे. ऐसे में अखिलेश यादव के लिए असली चुनौती अपनी साख बचाते हुए लोकसभा चुनाव में मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में बीजेपी के सामने विकल्प के तौर पर सामने आने की है.

बाजी पलट सकेगा चाचा-भतीजे का साथ?
नगर निगमों के महापौर की सीटों पर समाजवादी पार्टी हमेशा फिसड्डी साबित हुई है. 2017 के नगर निकाय चुनाव में समाजवादी पार्टी 16 सीटों पर खाता खोलने से भी वंचित रह गई थी. इसमें 14 सीटें बीजेपी और 2 सीट बीएसपी के खाते में गई थी. इसलिए पार्टी को उम्मीद है कि शिवपाल यादव के कुशल नेतृत्व में यादव और मुसलमान के गठजोड़ को मुलायम सिंह की तरह मजबूत कर सकेगी और इस कवायद में जातीय जनगणना के सवाल पर अन्य पिछड़ों का भी साथ मिलेगा जो बीजेपी को हराने का पर्याप्त कारक बनेगा.

शिवपाल यादव भी पार्टी द्वारा बनाई गई योजना पर पूरा भरोसा जताकर सपा की जीत का दावा कर रहे हैं. शिवपाल ही नहीं बल्कि सपा के नेताओं को पूरी उम्मीद है कि पुलिस कस्टडी में अतीक की मौत के बाद मुस्लिम सपा के पक्ष में एकजुट वोट करेगा और बीएसपी को खारिज करेगा.

बार-बार नए प्रयोग में असफल अखिलेश क्या राहुल गांधी की राह पर हैं?
साल 2017 विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठजोड़ और 2019 में बीएसपी के साथ तालमेल अखिलेश यादव के राजनीतिक फैसलों को लेकर सवालिया निशान छोड़ गया है. हद तो तब हो गई थी जब अखिलेश यादव के इस फैसले को उनके पिता दिवंगत नेता मुलायम सिंह ने ही खारिज कर दिया था. मुलायम सिंह यूपी में पूरी उम्र कांग्रेस के विरोध की राजनीति करते रहे थे और जब उन्हें जरूरत पड़ी तो बीएसपी जैसी पार्टी से गठबंधन कर बीजेपी की आंधी को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भी रोक दिया था.

अखिलेश यादव इस कोशिश में बार-बार फेल हुए हैं. यही वजह है कि अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव से पहले ममता बनर्जी की टीएमसी के साथ नजदीकी बढ़ाने का फैसला किया था. लेकिन नीतीश और तेजस्वी यादव द्वारा शुरू किए गए विपक्षी एकता की कवायद में एकबार फिर कांग्रेस के नजदीक जाते दिख रहे हैं. सवाल समाजवादी पार्टी को लंबे समय के बाद जीत दिलाने का है. इसलिए एक के बाद एक, कई असफल प्रयोग के बाद अखिलेश असमंजस की स्थिती में हैं.

अखिलेश यादव अब जातीय जनगणना की मांग को आगे रखकर हिंदुत्व की धार को कुंद करने का नया प्रयोग कर रहे हैं. जाहिर है इस प्रयोग की टेस्टिंग निकाय चुनाव के जरिए की जा रही है, जिससे यादव विरोधी गोलबंदी को रोका जा सके और ओबीसी वोट को साधा जा सके. इस नए प्रयोग में सेनापति के तौर पर शिवपाल यादव सामने हैं, जिनके नेतृत्व के सहारे नए मुद्दों को सामने रख जनाधार को परखने की तैयारी है. अखिलेश यादव यूपी में राहुल गांधी की तर्ज पर नए-नए प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन पिछले चार चुनावों में उन्हें सफलता नहीं मिली है.

चंद्रशेखर के सहारे दलितों में सेंधमारी की कोशिश
बीएसपी को साल 2022 के विधानसभा चुनाव में कम वोट मिलने के बाद अखिलेश यादव दलितों को साधने की फिराक में हैं. 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती के अवसर पर बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के जन्म स्थान महू में शिरकत कर एक नया संवाद स्थापित करने की कोशिश अखिलेश यादव ने की है. इतना ही नहीं अखिलेश यादव ने सपा के दलित विरोधी इमेज को बदलने की कवायद में कांशीराम की मूर्ति का अनावरण भी किया है.

जाहिर है इस पूरी कोशिश में उन्हें आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर का पूरा साथ मिल रहा है. लेकिन बीजेपी की मजबूत सरकार के सामने अखिलेश का ये नया दांव सफल हो सकेगा इस पर सवाल बना हुआ है. नगर निकाय चुनाव में अखिलेश यादव नए प्रयोग के जरिए बीजेपी को पटखनी देने की फिराक में हैं. लेकिन इस प्रयोग में असली चुनौती खुद की साख को बचाते हुए पार्टी की जीत सुनिश्चित करना है.

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